यह कहानी त्रेता युग से जुड़ी है। रावण, भगवान शिव के प्रमुख भक्तों में से एक थे। उन्होंने हिमालय क्षेत्र में एक शिवलिंग बनाया और कठिन तपस्या की। इस तपस्या के बाद, शिव जी खुश होकर प्रकट हुए। रावण ने उनसे वरदान मांगने का आलंब डाला और शिवलिंग को लंका में स्थापित करने की इच्छा जाहिर की।
शिव जी ने रावण की इच्छा को स्वीकार किया, लेकिन एक शर्त पर। वे बोले कि जैसा स्थान तुम इस शिवलिंग को रखोगे, वहीं यह स्थान स्थिर हो जायेगा, और तुम इसे फिर नहीं उठा सकोगे।
रावण ने शिव जी की बात मान ली और शिवलिंग को ले जाने के रास्ते में गलती से एक और जगह पर रख दिया। जब वह प्रत्यासी शिवलिंग को उठाने की कोशिश कर रहे थे, वह वहीं स्थायी हो गया। रावण ने बड़े प्रयास के बाद भी इसे नहीं हटा सका और हार मानकर चला गया।
रावण के जाने के बाद, सभी देवी-देवता, ऋषि-मुनि और भक्त इस शिवलिंग के पास पहुंचे और शिव पूजा करने लगे। भगवान को खुश करने के बाद, वे इस शिवलिंग में अविनाशी रूप में स्थित हो गए और इसे “बैद्यनाथ” के नाम से जाना गया।
इसके साथ ही, देवघर में देवी सती के 51 शक्ति पीठों में से एक “जयदुर्गा शक्ति पीठ” भी स्थापित है। इससे देवघर का धार्मिक महत्व बढ़ गया है, क्योंकि यहां शिव-पार्वती के दर्शन एक ही स्थान पर होते हैं।
बैद्यनाथ धाम में सावन महीने में कावड़ यात्रा भी आयोजित होती है, जिसमें कई भक्त बिहार के सुल्तानगंज से शिव के लिए जलाभिषेक करने के लिए आते हैं। यह यात्रा अक्सर पैदल की जाती है और गंगा नदी से जल लेकर बैद्यनाथ धाम पहुंचती है।